यदि ईश्वर सबमें व्याप्त है तो लोग अधर्मी, बेईमान या पापी कैसे हो जाते हैं? यह बहुत गहरा सवाल है, और इसे समझने के लिए हमें “ईश्वर की सर्वव्यापकता” और “मानव की स्वतंत्र इच्छा” दोनों को अलग-अलग देखना होगा।
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ईश्वर सर्वव्यापी है
- यह सत्य है कि ईश्वर हर जगह हैं — हमारे अंदर, हमारे आस-पास, पूरे ब्रह्मांड में।
- ईश्वर की ऊर्जा या चेतना सभी जीवों में विद्यमान है।
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मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा (Free Will)
- ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि और विवेक दिया है।
- उसी बुद्धि और इच्छाशक्ति के कारण कोई व्यक्ति अच्छे या बुरे कर्म कर सकता है।
- ईश्वर सबमें हैं, परंतु वह किसी पर ज़बरदस्ती अधर्म नहीं कराते।
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अधर्म और पाप का कारण
- अधर्म, पाप, बेईमानी आदि मनुष्य की अज्ञानता, लोभ, कृपणता, क्रोध और इच्छाओं की अनियंत्रित प्रवृत्ति से उत्पन्न होते हैं।
- यानि, ईश्वर की सर्वव्यापकता यह नहीं रोकती कि मनुष्य अपनी सोच और कर्म से गलत रास्ता चुन ले।
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दृष्टिकोण की मिसाल
- जैसे सूरज की रोशनी हर जगह है, लेकिन जो व्यक्ति अंधेरे कमरे में बैठा है वह प्रकाश को नहीं देखता।
- इसी प्रकार, ईश्वर सबमें हैं, लेकिन मनुष्य के अज्ञान, लालच या अहंकार के कारण वे सही दिशा नहीं देख पाते।
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सारांश
- ईश्वर सबमें है, लेकिन मनुष्य को विवेक और कर्म करने की स्वतंत्रता मिली है।
- पाप और अधर्म हमारे अपने चुनाव और मनोवृत्ति का परिणाम हैं, ईश्वर की अनुपस्थिति नहीं।
इसे एक सरल और स्पष्ट चित्रात्मक उदाहरण से समझते हैं।
चित्रात्मक उदाहरण: दीपक और कमरे का अंधेरा
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ईश्वर = दीपक की रोशनी
- रोशनी हर जगह फैलती है।
- यह ऊर्जा सभी जगह मौजूद है।
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मनुष्य = कमरे में बैठा व्यक्ति
- व्यक्ति अपने कमरे में बैठा है।
- उसके पास दीपक की रोशनी है, लेकिन अगर उसने आँखें बंद कर लीं या पर्दा खींच लिया, तो वह रोशनी का लाभ नहीं उठा पाएगा।
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अधर्म / पाप = अंधेरे में की गई गलतियाँ
- अंधेरे में व्यक्ति ठोकर खाता है या फिसलता है।
- रोशनी मौजूद होने के बावजूद उसकी अपनी अज्ञानता और निर्णय के कारण वह गलत राह पर चला जाता है।
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सत्कर्म = रोशनी का उपयोग करना
- अगर व्यक्ति रोशनी देखता है, उसे सही रास्ता दिखाई देता है।
- ठीक वैसे ही, जब मनुष्य ईश्वर की चेतना या ज्ञान को समझता है, वह धर्म और अच्छाई की ओर जाता है।
💡 मुख्य बिंदु:
- ईश्वर हर जगह हैं, लेकिन मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा, अहंकार, लोभ और अज्ञान पाप और अधर्म का कारण बनती है।
- ईश्वर बाध्य नहीं करते कि हम हमेशा सही करें, बल्कि हम पर निर्भर है कि हम उनके प्रकाश (ज्ञान) को स्वीकार करें या नहीं।