कोदो (Kodo Millet) भारत का एक बहुत ही पुराना और पारंपरिक मोटा अनाज (Millet) है। इसे हिंदी में कोदो या कोदों कहते हैं और वैज्ञानिक नाम Paspalum scrobiculatum है। यह मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु और झारखंड में उगाया जाता था, लेकिन धीरे-धीरे इसका उत्पादन और उपभोग बहुत कम हो गया है।
कोदो की विशेषताएँ –
पोषण से भरपूर –
- इसमें भरपूर मात्रा में फाइबर (रेशा) होता है।
- यह ग्लूटेन-फ्री अनाज है, इसलिए डायबिटीज और पेट की समस्या वाले लोगों के लिए लाभकारी है।
- इसमें आयरन, कैल्शियम, प्रोटीन और एंटीऑक्सीडेंट पाए जाते हैं।
स्वास्थ्य लाभ –
- मधुमेह (Diabetes) नियंत्रण में मददगार।
- वजन कम करने में सहायक।
- पाचन तंत्र को मजबूत करता है।
- हृदय रोग से बचाव में लाभकारी।
खेती की विशेषता –
- कोदो की खेती सूखे और कम पानी वाले इलाकों में भी की जा सकती है।
- यह बहुत कम देखरेख में भी उग जाता है।
- रासायनिक खाद और कीटनाशक की ज्यादा जरूरत नहीं होती।
विलुप्त होने का कारण –
- आधुनिकता और चावल-गेहूं पर ज्यादा निर्भरता।
- किसानों का मोटे अनाज की जगह अधिक उपज देने वाली फसलों की ओर झुकाव।
- बाजार में मांग का कम होना।
👉 इसीलिए आज कोदो जैसे पारंपरिक अनाज लगभग विलुप्ति की कगार पर पहुँच गए हैं, जबकि पहले यह हमारे दैनिक भोजन का अहम हिस्सा होते थे।
निष्कर्ष
अगर हम अपने भोजन में कोदो और अन्य मोटे अनाज (जैसे बाजरा, ज्वार, रागी) को फिर से शामिल करें और किसानों को इसकी खेती के लिए प्रोत्साहित करें, तो यह न केवल हमारी स्वास्थ्य रक्षा करेगा, बल्कि हमारी प्राचीन कृषि संस्कृति को भी जीवित रखेगा।
कोदो (Kodo Millet) एक पारंपरिक मोटा अनाज है जिसकी खेती प्राचीन समय से होती आ रही है। इसकी खेती चावल-गेहूं की तरह आधुनिक तकनीकों से नहीं, बल्कि पारंपरिक तरीकों से की जाती थी। आइए इसके उत्पादन की विधियों को विस्तार से समझते हैं –
🌾 कोदो उत्पादन की विधियाँ
1. भूमि (Soil Preparation)
- कोदो की खेती सामान्य, हल्की रेतीली-दोमट या मध्यम उपजाऊ भूमि में हो जाती है।
- किसान हल और बैल की मदद से खेत को 2-3 बार जुताई करते थे।
- खेत को समतल करने के लिए "पाटा" (लकड़ी का समतल उपकरण) चलाया जाता था।
- ज्यादा खाद की आवश्यकता नहीं होती थी, लेकिन गोबर की सड़ी खाद (Farmyard manure) डाली जाती थी।
2. बीज बोना (Sowing of Seeds)
- बीज बोने का समय बरसात (जून-जुलाई) में होता था।
- पारंपरिक विधि में बीज को हाथ से छिटकवाँ (broadcasting method) बोया जाता था।
- कुछ जगहों पर कतारों में बोया जाता था ताकि निराई-गुड़ाई आसान हो।
- बीज की मात्रा लगभग 8-10 किलो प्रति एकड़ पर्याप्त होती थी।
3. सिंचाई और देखभाल (Irrigation & Care)
- कोदो की खासियत यह है कि यह बारानी (rainfed) फसल है, यानी इसे अतिरिक्त पानी की जरूरत नहीं होती।
- केवल वर्षा के पानी पर ही यह अच्छी तरह उग जाती है।
- खरपतवार (weeds) को हटाने के लिए किसान 2-3 बार निराई-गुड़ाई करते थे।
4. फसल की सुरक्षा (Crop Protection)
- यह फसल बहुत मजबूत होती है, ज्यादा रोग या कीट नहीं लगते।
- कभी-कभी पक्षी दाने खाने लगते थे, तो किसान खेत में काकड़, पुतला (scarecrow) लगा देते थे।
- ज्यादा बारिश में खेत में पानी रुकना खतरनाक होता था, इसलिए खेत से निकासी का इंतज़ाम किया जाता था।
5. कटाई और मड़ाई (Harvesting & Threshing)
- फसल लगभग 3-4 महीने में पक जाती थी।
- जब पौधों की बालियाँ सुनहरी होकर कठोर हो जाती थीं, तो दरांती से कटाई की जाती थी।
- कटाई के बाद पौधों को धूप में सुखाया जाता था।
- दाने निकालने के लिए लाठी से पीटकर या बैल से मड़ाई की जाती थी।
- अनाज को धूप में सुखाकर मिट्टी के कोठार, लकड़ी के बक्सों या बाँस के भंडार में रखा जाता था।
6. उत्पादन का स्तर
- प्रति एकड़ लगभग 3-5 क्विंटल अनाज मिल जाता था।
- साथ में भूसा भी मिलता था जिसे पशुओं के चारे के रूप में उपयोग किया जाता था।
✅ इस तरह कोदो की खेती कम लागत, कम पानी और कम देखभाल में आसानी से हो जाती थी। यही कारण है कि इसे गरीब और आदिवासी किसान अपनी मुख्य फसल मानते थे।

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