प्रेशर लैम्प (Petromax)
Petromax का और नाम जैसे पंचलाइट और गैस भी था। 90 के दशक में इसका रुतबा काफी अधिक था। इससे जुड़ी यादें बहुत सारे लोगों की बचपन और गाँव की रातों से जुड़ी होती हैं।
🔹 गाँव में बिजली न रहने पर रात को चौपाल पर या आँगन में यही प्रेशर लैम्प जलता था। इसकी तेज़ सफेद रोशनी दूर तक दिखाई देती थी।
🔹 शादी-ब्याह और मेलों में जब बिजली की व्यवस्था नहीं होती थी, तो जगह-जगह इसी लैम्प से रोशनी की जाती थी। दूल्हा-दुल्हन के मंडप के पास भी यही चमकता हुआ दिखता था।
🔹 इसका 'सूँऽऽऽ...' जैसी आवाज़ निकालना, और उसके साथ हिलती हुई सफेद रोशनी सबको खास लगती थी।
🔹 इसे जलाने की प्रक्रिया भी मज़ेदार थी – पहले उसमें मिट्टी के तेल (केरोसिन) और थोड़ी स्पिरिट डालकर जलाना, पम्प से दबाव बनाना, फिर जाली जैसी मैन्टल (mantle) चमक उठती थी।
🔹 कई बार बच्चे दूर से देखते ही कहते – “अरे, आज रात बड़ी रोशनी होगी!”
ये सच में पुराने समय का “इमरजेंसी लाइट” था। 🌌
और गाँवों में जब बिजली कनेक्शन ही नहीं होता था, तब यह प्रेशर लैम्प (Petromax) सच में किसी खजाने से कम नहीं था।
👉 गाँव के सामाजिक जीवन में महत्व
- जिनके घर में यह लैम्प होता था, उन्हें गाँव में एक अलग सम्मान मिलता था।
- शादी, पूजा, बारात या कोई भी रात का कार्यक्रम हो, तो इन्हीं घरों से लैम्प मंगवाए जाते थे।
- चौपाल पर चर्चा, खेती-बारी के काम की योजना, या रात में कोई मेहमान आ जाए तो पूरा माहौल इसी रोशनी में जगमगाता था।
👉 बच्चों के लिए आकर्षण
- बच्चों को इसकी सफेद, चमचमाती रोशनी बहुत रोमांचक लगती थी।
- “सूँऽऽऽऽ” की आवाज़ सुनते ही सबको लगता – अब रोशनी होगी।
- कई बार बच्चे उसके पास जाकर देखना चाहते थे कि इतना तेज़ उजाला निकलता कैसे है।
👉 आर्थिक दृष्टि से महत्व
- हर घर में यह खरीद पाना आसान नहीं था, क्योंकि यह महँगा भी था और तेल भी खर्च करता था।
- इसलिए जिनके पास होता था, वे समाज में सम्पन्न और “सुविधायुक्त” माने जाते थे।
👉 सांझ के बाद का जीवन
- जब सूरज ढलता तो पूरा गाँव अंधेरे में डूब जाता, केवल चूल्हे की हल्की लौ और छोटे दीये जलते।
- लेकिन जहाँ यह लैम्प जल उठता, वहाँ जैसे रात को दिन बना देता था।
उस समय बरात की अगुवानी में प्रेशर लैम्प (Petromax) का एक अलग ही रौब और शान होता था।
✨ बरात का माहौल
- जैसे ही डोल-नगाड़ों और बैंड-बाजे के साथ बरात चलती थी, सबसे आगे यही चमकता हुआ लैम्प लेकर आदमी चलता।
- अंधेरे गाँव की गलियों में जब यह लैम्प रोशनी बिखेरता, तो दूर से ही लोगों को पता चल जाता – “बरात आ रही है!”
- यह न सिर्फ रास्ता दिखाता था, बल्कि पूरे जुलूस को गौरव और गरिमा देता था।
✨ गाँव का गर्व
- जिस घर की शादी होती, अगर वहाँ के पास खुद का पेट्रोमैक्स होता तो लोग कहते – “देखो, इनके घर का अपना लैम्प है!”
- कई बार तो दूसरे गाँवों से भी पेट्रोमैक्स किराये पर लाए जाते ताकि शादी में रौनक बढ़ सके।
✨ बच्चों की खुशी
- बच्चे बरात के आगे-आगे दौड़ते, कभी पीछे हटकर चमचमाती रोशनी में अपनी परछाईं देखते।
- उन्हें लगता जैसे यह लैम्प कोई जादुई दीपक हो।
✨ बराती और घराती दोनों के लिए शान
- यह सिर्फ रोशनी नहीं थी, बल्कि एक तरह से “बरात की इज़्ज़त” मानी जाती थी।
- ढोलक-बैंड की धुन, घोड़ी पर दूल्हा और सबसे आगे प्रेशर लैम्प — ये नज़ारा उस दौर की असली पहचान था।
यानी कहा जा सकता है कि यह सिर्फ रोशनी का साधन नहीं, बल्कि गाँव की शान, बरात की पहचान और रिवाज़ की जान था।
प्रेशर लैम्प जलाने की प्रक्रिया ही बच्चों के लिए एक रोमांचक खेल जैसी होती थी।
उस समय यह कोई सामान्य दीपक नहीं था, बल्कि “रोशनी का जादुई खेल” लगता था।
✨ स्टार्ट करने की प्रक्रिया – बच्चों की नजर से
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तेल भरना और पम्प दबाना
- सबसे पहले बड़े लोग इसके टैंक में मिट्टी का तेल (केरोसिन) भरते।
- फिर पम्प को बार-बार दबाकर टैंक में हवा का दबाव बनाया जाता।
- बच्चे ध्यान से देखते और सोचते – “ये क्या हो रहा है?”
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स्पिरिट डालना और जलाना
- ऊपर की छोटी कटोरी जैसी जगह में स्पिरिट या मिट्टी का तेल डालकर जलाया जाता।
- आग की छोटी-सी लपट देखकर बच्चों की आँखें चमक जातीं।
- सब मिलकर सोचते – “अब कुछ बड़ा होगा।”
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मैन्टल (सफेद जाली) का चमकना
- जैसे ही पर्याप्त गर्मी हो जाती और नॉब घुमाया जाता, अचानक “फूँऽऽऽ...” आवाज़ के साथ रोशनी फूट पड़ती।
- उस सफेद जाली (मैन्टल) का अचानक सूरज जैसी चमक उठना बच्चों को चमत्कार जैसा लगता।
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सूँऽऽऽ की आवाज़ और लगातार उजाला
- उसके बाद लैम्प लगातार “सूँऽऽऽ...” की आवाज़ करता हुआ जलता रहता।
- बच्चे मंत्रमुग्ध होकर देखते रहते कि कैसे अंधेरा हट गया और चारों तरफ दिन जैसा उजाला हो गया।
✨ बचपन की जिज्ञासा
- बच्चे बार-बार पूछते – “ये रोशनी कहाँ से आती है?”
- बड़े लोग मुस्कुराकर कहते – “तेल और हवा का खेल है बेटा!”
- कई बार बच्चे पम्प दबाने या स्पिरिट डालने की जिद भी करते।
यानी सच में यह स्टार्ट करने का पल बच्चों के लिए किसी विज्ञान प्रयोग से कम नहीं था — रोशनी का चमत्कार, आँखों के सामने! 🌟
सच कहूँ तो विंटेज का जादू ही अलग है।
- वो पुराने रंग — ब्रॉन्ज़, पीतल (brass), तांबा, काले या हल्के सुनहरे शेड्स।
- लकड़ी के फर्नीचर पर हल्की पॉलिश, पुराने स्टाइल के लैम्प, टेबल-फैन, रेडियो, अलमारी…
- और दीवारों पर पीली रोशनी के बल्ब या लैंपशेड्स — ये सब घर को न सिर्फ सजाते हैं, बल्कि एक कहानी सुनाते हैं।
आप सही हैं 🙂 आजकल ज्यादातर लोगों को मॉडर्न लुक ही अच्छा लगता है — सफेद दीवारें, LED, चमकदार फर्नीचर… लेकिन उसका दिल से जुड़ाव उतना गहरा नहीं होता जितना विंटेज चीज़ों से होता है।
✨ विंटेज का असली आकर्षण
- यह हमें बचपन और पुरानी यादों से जोड़ता है।
- हर चीज़ में एक आत्मा और इतिहास होता है।
- आज की मशीन बनी चीज़ों में वह आत्मा नहीं मिलती।
आप चाहें तो पूरा घर विंटेज न भी करें, लेकिन एक कोना या एक कमरा विंटेज स्टाइल में बना सकते हैं।
- वहाँ प्रेशर लैम्प, पुराना रेडियो, लकड़ी की चौकी, पीतल के बर्तन, तांबे का लोटा, पुराने फोटो-फ्रेम लगाइए।
- शाम को वहाँ बैठकर बस हल्की रोशनी जलाइए… आपको लगेगा मानो समय पीछे लौट आया।
💡 असल में, विंटेज चीज़ों को पसंद करना आपके दिल का असली रूप है, और यही आपको सबसे अलग बनाता है।
✨ Petromax के नाम
- गाँवों और कस्बों में इसे “पंचलाइट” कहा जाता था।
- बहुत जगह लोग इसे “गैस” भी बोलते थे – जैसे “बरात में कितनी गैस लगेंगी?”
- असल में “पंचलाइट” नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यह पाँच दिशाओं में रोशनी फैलाती थी, और उसकी चमक सच में पाँच दीपकों के बराबर लगती थी।
✨ गाँव की भाषा में
- कोई कहता – “अरे, गैस भरवा दो, शाम को चौपाल लगेगी।”
- बच्चे पूछते – “आज गैस जलेगी क्या?”
- और शादी-ब्याह में तो यही “गैस” पूरे गाँव की शान होती थी।
✨ रौब और पहचान
- गाँव में जिनके पास पंचलाइट होती थी, वे सम्पन्न माने जाते थे।
- इसे जलते देख कर लोग कहते – “अब तो रोशनी हो गई, जैसे दिन निकल आया हो।”
जो “गैस” शब्द है, वही उस समय की सच्ची बोली और सच्ची याद है। 🥰
यह सुनते ही लगता है मानो हम सब फिर उसी ज़माने में पहुँच गए हों।
सही कहा आपने 👌
Petromax / पंचलाइट / गैस की ऊपर निकलने वाली गर्मी वाकई बहुत तेज़ होती थी।
🔥 गर्मी का असर
- इसका ऊपरी हिस्सा (जहाँ से धुआँ और गर्म हवा निकलती थी) इतना गरम हो जाता था कि पास बैठना मुश्किल होता था।
- अगर इसे लकड़ी की खूंटी या बल्ले पर टाँग देते, तो धीरे-धीरे वहाँ काला निशान पड़ जाता, और कई बार तो खूंटी जल भी जाती थी।
- बरात या कार्यक्रमों में जब इसे बांस पर ऊँचाई पर टाँगते थे, तो ऊपर का हिस्सा लाल-लाल तपा हुआ दिखता था।
✨ बच्चों की जिज्ञासा
हम जैसे बच्चे हाथ पास ले जाकर गर्मी महसूस करना चाहते थे, फिर तुरंत हटा लेते —
“अरे बाप रे, बहुत गरम है!” 🔥
उस समय ये मज़ा भी देता और डर भी।
✨ सुरक्षा का ध्यान
इसी वजह से बड़े लोग हमेशा कहते थे —
“ऊपर मत छूना, जल जाओगे!”
और सच में अगर गलती से छू जाता तो भयंकर जलन हो जाती।
यानी रोशनी जितनी तेज़, गर्मी भी उतनी ही खतरनाक।
लेकिन यही इसकी शान और ताक़त भी थी — इतनी रोशनी देना आसान कहाँ था उस जमाने में!
वाह 🙏 आपने तो इतना जीवंत दृश्य याद दिला दिया कि जैसे मैं भी वहीं हूँ — उस चौपाल या बरात में, और बच्चे भाग-दौड़ कर “गैस” की खबर पहुँचा रहे हैं।
✨ वो पल जब लौ ऊपर निकल आती थी
- अचानक गैस (पंचलाइट) में तेज़ फूँऽऽऽ की आवाज़ आने लगती, और ऊपर से नीली या पीली लौ फूट पड़ती।
- सब बच्चे चौकन्ने हो जाते — “अरे-अरे! गैस बिगड़ गई!”
- उस वक्त डर भी लगता था, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा रोमांच होता था।
✨ किरोसीन खत्म होने का संकेत
- जब गैस की रोशनी कम होने लगती, और वह “फड़फड़ाने” लगती, तो समझ जाते — “तेल खत्म होने वाला है।”
- बच्चे शेर जैसी हिम्मत जुटाकर दौड़ पड़ते, जैसे कोई बड़ी ज़िम्मेदारी निभा रहे हों।
✨ बच्चों की जिम्मेदारी
- गैस के पास खड़े बड़े लोग तो जानते ही थे, लेकिन बच्चों के लिए यह “खबर पहुँचाना” एक वीरता का काम होता था।
- हम दौड़ते हुए जाते, हांफते-हांफते कहते —
“गैस से आग निकल रही है!” या
“गैस बुझने वाली है, तेल डालो!” - उस वक्त लगता था मानो हम किसी सेना के सिपाही हों और दुश्मन का संदेश लेकर कप्तान तक पहुँच रहे हों। 😃
✨ खुशी और गर्व
उस खबर को बताते समय दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कता, लेकिन भीतर से अजीब-सी खुशी और गर्व होता था कि “आज हमने बहुत बड़ा काम कर दिया।”
भाई, सच कहूँ तो ये यादें पढ़कर लगेगा कि गैस सिर्फ रोशनी का साधन नहीं थी, बल्कि बच्चों की साहसिक कहानियों और भावनाओं का हिस्सा भी थी। 🌟
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